क्यों गा रही हो तुम? क्यों नाच रही हो तुम?क्या तुम मुझे पुकारती हो? या मुझे नकारती हो?ओह मेरी मधुमक्खी! ओह मेरी मधुमक्खी🐝 कविता: “ओह मेरी मधुमक्खी!”
🐝 कविता: “ओह मेरी मधुमक्खी!” क्यों नाच रही हो तुम? क्यों गा रही हो तुम? क्या तुम मुझे पुकारती हो? या मुझे नकारती हो? क्यों नाच रही हो तुम? क्यों गा रही हो तुम? क्या तुम मुझे पुकारती हो? या मुझे नकारती हो? ओह मेरी मधुमक्खी! ओह मेरी मधुमक्खी! ओह मेरी मधुमक्खी! क्यों गा रही हो तुम? क्यों नाच रही हो तुम? क्या तुम मुझे पुकारती हो? या मुझे नकारती हो? ओह मेरी मधुमक्खी! ओह मेरी मधुमक्खी! -- 🕊️ विश्लेषण और दार्शनिक दृष्टिकोण यह कविता केवल एक प्रश्न नहीं है, बल्कि प्रेम, भ्रम और आत्म-संशय की गहराई में उतरने की एक यात्रा है। “मधुमक्खी” यहाँ एक प्रतीक है — प्रेम, आकर्षण, और जीवन की मिठास का भी। कवि बार-बार पूछता है — “क्या तुम मुझे बुला रही हो या मुझे अस्वीकार कर रही हो?” यह प्रश्न मनुष्य के अंतरमन की बेचैनी और अनिश्चितता को दर्शाता है। मधुमक्खी गुनगुनाती है, नाचती है, और अपने आसपास की दुनिया में मिठास फैलाती है। पर उसके डंक में पीड़ा भी है। यही तो प्रेम का द्वंद्व है — आकर्षण और भय का संगम। कवि का “ओह मेरी मधुमक्खी” कहना किसी प्रेमिका या किसी दैवी सत्ता से संवाद जैसा लगता है। वह पूछना चाहता है ...